एक सोच चली उस खोज में
जिस खोज की न थी कोई थाह
टेढ़े - मेढ़े रास्तों से
उबड़ -खाबड़ रास्तों से
बढती गयी , चलती गयी
बढती गयी , चलती गयी
आगे एक मोड़ पर, पड़ गयी सोच में ,वह एक सोच
शांतचित , असमंजस
पड़ी रही सोच में
उस लम्बे रस्ते पर
न कोई था राहगीर
न कोई पहिया गुजरती
न कोई पदचिन्ह
पड़ी रही वह सोच में, किसी की खोज में
कोई तो आये , दिशा दिखाए
ले चले उस खोज तक
जिसकी खोज थी उस सोच को
समय का चक्र घूमा ,
सरसराहट बढ़ी
बावरा हवा का एक झोका
मस्त गगन से निचे उतरा
बावरे को देख सोच मचली ,
उसकी आगोश में सिमटी
निकल गयी अपनी खोज में!
बावरे का साथ था
हाथो में उसके हाथ था,
सब कुछ स्पष्ट , दृष्टिगोचर था ,
लक्ष्यहीनता ख़त्म हुयी
एक सुबह की शुरुआत हुयी
मिल गयी उस सोच को वह खोज
जिस खोज में कभी निकली थी वह एक सोच !!