Sunday, 22 July 2012

एक सोच

एक सोच चली उस खोज में 
जिस खोज की न थी कोई थाह 

                 टेढ़े - मेढ़े  रास्तों  से
                 उबड़ -खाबड़ रास्तों से 
                 बढती गयी , चलती गयी  
                 बढती गयी , चलती गयी

 आगे एक मोड़  पर, पड़  गयी सोच में ,वह एक सोच

         
                 शांतचित , असमंजस 
                 पड़ी रही सोच में 
                 उस लम्बे रस्ते पर 
                 न कोई था राहगीर 
                न कोई पहिया गुजरती 
                न कोई पदचिन्ह 

पड़ी रही वह सोच में, किसी की खोज में 
कोई तो आये , दिशा दिखाए 
ले चले उस खोज तक 
जिसकी  खोज थी उस सोच को  
                 
              समय का चक्र  घूमा ,
              सरसराहट बढ़ी 
              बावरा हवा का एक झोका 
              मस्त गगन से निचे उतरा 
            
बावरे को देख सोच मचली ,
उसकी आगोश में सिमटी 
निकल  गयी अपनी खोज में!

            बावरे का साथ था 
            हाथो में उसके हाथ था,

सब कुछ स्पष्ट , दृष्टिगोचर था ,
लक्ष्यहीनता ख़त्म हुयी 
एक सुबह की शुरुआत हुयी  


           मिल गयी उस सोच को वह खोज 
           जिस खोज में कभी निकली थी वह एक  सोच !!


                
               


      

4 comments:

  1. Very nicely written! Deep and intense.. keep the good work up!!!

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    1. thank you very much.. this kind of support and appreciation can keep me writing..

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  2. बहुत खूब भाई,मैं अरसो बरसो से तुम्हारे ब्लॉग पढने का इंतज़ार कर रहा था....पर अफ़सोस नही फल मीठा ही मिला....यह एक बेहतरीन प्रस्तुति थी....धन्यवाद....

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    1. भाई बहुत बहुत धन्यबाद

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