एक सोच चली उस खोज में
जिस खोज की न थी कोई थाह
टेढ़े - मेढ़े रास्तों से
उबड़ -खाबड़ रास्तों से
बढती गयी , चलती गयी
बढती गयी , चलती गयी
आगे एक मोड़ पर, पड़ गयी सोच में ,वह एक सोच
शांतचित , असमंजस
पड़ी रही सोच में
उस लम्बे रस्ते पर
न कोई था राहगीर
न कोई पहिया गुजरती
न कोई पदचिन्ह
पड़ी रही वह सोच में, किसी की खोज में
कोई तो आये , दिशा दिखाए
ले चले उस खोज तक
जिसकी खोज थी उस सोच को
समय का चक्र घूमा ,
सरसराहट बढ़ी
बावरा हवा का एक झोका
मस्त गगन से निचे उतरा
बावरे को देख सोच मचली ,
उसकी आगोश में सिमटी
निकल गयी अपनी खोज में!
बावरे का साथ था
हाथो में उसके हाथ था,
सब कुछ स्पष्ट , दृष्टिगोचर था ,
लक्ष्यहीनता ख़त्म हुयी
एक सुबह की शुरुआत हुयी
मिल गयी उस सोच को वह खोज
जिस खोज में कभी निकली थी वह एक सोच !!
Very nicely written! Deep and intense.. keep the good work up!!!
ReplyDeletethank you very much.. this kind of support and appreciation can keep me writing..
Deleteबहुत खूब भाई,मैं अरसो बरसो से तुम्हारे ब्लॉग पढने का इंतज़ार कर रहा था....पर अफ़सोस नही फल मीठा ही मिला....यह एक बेहतरीन प्रस्तुति थी....धन्यवाद....
ReplyDeleteभाई बहुत बहुत धन्यबाद
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